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राष्ट्रीय चुनाव और भारत का भविष्य

brajendra_rachnayen
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राष्ट्रीय चुनाव और भारत का भविष्य
भारत में २०१४ का यह राष्ट्रीय चुनाव पूरे विश्व में प्रजातंत्र का सबसे बड़ा पर्व रहा है । इसमे भाग लेने वाले मतदाताओं की संख्या, उम्मीदवारों की संख्या और राष्ट्रीय चुनाव मशीनरी पर खर्च होने वाली राशि तथा इसमें सम्मिलित प्रचार माध्यमों की भागीदारी सम्भवतः पूरे विश्व के अन्य राष्ट्रों की तुलना में सबसे अधिक है । यह चुनाव भारत का भविष्य तय करेगा अवश्य, पर भविष्य क्या होगा यह अनिर्णीत है । यह चुनाव 16 वॆ लोकसभा का गठन करेगा । पिछली लोकसभा के चुनाओं में जैसे उम्मीदवार चुने जाकर आए हैं उनकी गुणवत्ता में निरंतर ह्रास होता रहा है , यह एक निर्विवाद सत्य है । आज़ादी के बाद की पहली लोकसभा में सांसदो के चरित्र की गुणवत्ता से अगर पिछली लोकसभा के सांसदो की तुलना की जाय तो उसमें जमीन – असमान का अंतर मिलेगा । इसीलिए हमें पिछली लोकसभा में काली मिर्ची कांड से लेकर अभद्रव्यहार , मर्यादाओं का उलंघन तथा भाषा पर अनियंत्रण सांसदों की स्तरहीनता को दर्शाता है।
ऐसा क्यों हो रहा है? आज़ादी की लड़ाई में भाग लेकर और उसमें तपाये जाकर जो नेता बाहर निकले थे और उनसे जो संसद बनी थी उसकी मर्यादा और उसकी कार्यवाही की मिशाल दी जा सकती है । आज़ादी की लड़ाई के समय कांग्रेश एक दल नहीं एक आंदोलनका नेतृत्व करनेवाला , आम जनता को शिक्षित,अनुशाषित तथा निडर बनाने का कार्य करने वाला एक प्रतिनिधि संगठनथा । इसके नेता जमीन से जुड़े थे और इसके नेताओं का जनता के साथ सीधा सम्बन्ध था। वे अपने को नेता से अधिक जनता का सेवक समझते थे। फिर भी प्रजातंत्र में सत्ताधारी दल का एकाधिकार नहीं हो जाय इसीलिए कांग्रेस से ही एक घटक अलग होकर प्रजा सामाजवादी पार्टी , स्वतंत्र पार्टी बनाकर विपक्ष में बैठना स्वीकार किया। ऐसा प्रजातंत्र में सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों के सामान महत्व को स्थापित करने के लिए भी बहुत जरूरी था। संसद सत्र में विपक्ष में बैठे आचार्य नरेंद्रदेव , कृपलानी , लोहिया आदि नेता जब बोलते थे तो उनकी बातें नेहरूजी , गोविन्द बल्लभ पंत आदि नेता भी दत्त चित्त होकर सुनते थे। यह पक्ष और विपक्ष दोनों के बीच की मर्यादाओं की रेखा थी जिसका सम्मान दोनों करते थे। सत्ता पक्ष अपने उत्तरदायित्तवों को निभाने में विपक्ष के सुझाओं का भी सम्मान करता था। विपक्ष भी सत्ता पक्ष का सिर्फ विरोध ही नहीं करता था बल्कि उसके अच्छे कार्यों की प्रशंशा भी की जाती थी। यह एक आदर्श प्रजातंत्र के संसदीय कार्यकलाप का रूप था जो दुनिया के सामने एक मिशाल बन गया। ऐसा इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि भारत के साथ जितने भी अन्य राष्ट्र आज़ाद हुए वहाँ या तो कोई तंत्र ही कायम नहीं हो सका या अगर प्रजातंत्र कायम हुआ भी तो वह धीरे – धीरे अधिनायक तंत्र में तब्दील हो गया और तानाशाही कायम हो गयी।
भारत में यह दलीय प्रजातंत्र का आदर्श स्वरुप था जो आज़ादी के बाद के सरकार के गठन , विपक्ष की भूमिका और नीतियों के निर्धारण , कार्यान्वन , और नेताओं के सभ्य आचरण के रूप में परिलक्षित हुआ। सरकार में बने रहकर सुविधा और सत्ता के भोगी सांसदों और पार्षदों के आचरण और चरित्र में धीरे – धीरे क्षरण शुरू हो गया। यह आज़ादी के तुरंत बाद स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेनेवाले नेताओं के शीर्ष वर्ग में कम हुआ। किन्तु जैसे ही सत्ता दूसरी पंक्ति के नेताओं के हाथ में पहुँची , जनतांत्रिक मूल्यों का ह्रास तेजी से हुआ। सत्तर के दशक में यह अधिक हुआ। भारत के संविधान का निर्माण भी अमेरिका और इंग्लैंड के संविधान के अंशों को जोड़कर हुआ। यह नीतियों के निर्धारण के लिए तो ठीक – ठाक था, किन्तु नीतियों का कार्यान्वन जिस नौकरशाही के हाथों था, उसका ढांचा अंग्रेजों के द्वारा उस समय के शासन चलाये जाने के लिए बनाये ढांचे जैसा ही था। यही नौकरशाही नीतियों को कागज़ पर उतारती रही है जिसे जनता के नुमाइंदे थोड़े बहुत फेरबदल के साथ पास करते रहे हैं। इसके लिए संविधान में कहीं भी इसतरह के संसदीय प्रजातंत्र के दोषरहित ढांचे के निर्माण की स्पष्ट रूपरेखा नहीं बन सकी जिससे राज्य सत्ता सर्वोत्तम लोगो के हाथ में रहे और वे लोग उचित नीतियों , कार्यक्रमों एवं योजनाओं के क्रियान्वन और संसाधनो के सम्यक उपयोग करने के नियम बनायें। मानव कल्याण पथ के अविरल अनुसंधान के तरफ दलों और दलीय ढांचे का झुकाव रहे , यह सुनिश्चित कर पाना संविधान के प्रावधानों के अंतर्गत नहीं आता है।
अब मैं इतिहास में विश्व स्तर पर घटित क्रांतियों और उसके परिणामों की चर्चा करता हुआ आज भारत में प्रचलित दलीय प्रजातंत्र के ऊपर प्रकाश डालते हुए इन दिनों के चुनाव की समीक्षा करना चाहूंगा। भारत ने संविधान में समाजवाद की स्थापना को अपना लक्ष्य स्वीकार कियाहै। लेकिन समाजवाद का रास्ता किसी प्रकार भी तानाशाही से होकर नहीं गुजरता है। सामाजिक क्रांति में लोगों की इच्छा क्या है इसका पता क्रांति का नेतृत्व करनेवालों को अवश्य होना चाहिए। जनता की स्वाभाविक प्रवृत्ति सदैव स्वतंत्रता और जनतंत्र के पक्ष में ही होती है। जान बूझकर तानाशाही स्वीकार करने की प्रवृति जनता में हरगिज नहीं होती। सोवियत रूसमें लेनिन और ट्राटस्की के नेतृत्व में जार के शोषणोन्मुख शासन का खात्मा और फिर लेनिन के नेतृत्व में राज्य – केंद्रित समाजवादी शासन व्यवस्था का स्थापित होना उससमय विश्व की एक बहुत बड़ी क्रांतिकारी घटना थी। लेकिन क्या वास्तविक समाजवाद स्थापित हो सका ? क्या वहाँ की जनता के हाथों में सत्ता पहुँची ? क्या वहाँ की जनता को अपने प्रतिनिधि के सीधे चुनाव करने की छूट मिली ? जार का पूंजीवाद तो समाप्त हो गया किन्तु समाजवाद फिर भी दूर रह गया। समाजवाद पूंजीवाद का अभाव मात्र नहीं है। उद्योग, वाणिज्य , बैंक , कृषि आदि का राष्ट्रीयकरण और समूहीकरण तो हो गया किन्तु असली समाजवाद फिर भी दूर रह गया। सोवियत रूस में व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को जिस तरह राज्य मशीनरी द्वारा सीमित और नियंत्रित किया गया उससे तो लगा कि सामाजिक न्याय और समतामूलक समाज के निर्माण के जिस मूलभूत सिद्धांत पर समाजवाद टिका है उससे ही कहीं और भटक गया। अफसरशाह शासको के एक नए वर्ग का निर्माण, दुष्प्रभाव तथा शोषण के नए अवतार का नया चेहरा भी देखा गया। इसी व्यवस्था से स्टॅलिन जैसे अधिनायक का जन्म हुआ जो समाजवादी खोल में तानाशाहका ही एक नया रूप था। राजनैतिक और आर्थिक सत्ता का अत्यधिक केंद्रीकरण और संपूर्ण राज्यवाद ही इस बुराई की जड़ में था। इससे स्पष्ट हो गया कि राज्य वाद सच्चे समाजवाद का विकल्प नहीं हो सकता।
यूरोप में साम्यवाद असफल हुआ और फेबियन की परिकल्पना के अनुसार लोकतान्त्रिक समाजवाद को भी कोई ख़ास सफलता नहीं मिली। कल्याणकारी राज्य का सिद्धांत समाजवाद का बहुत ही कमजोर स्वरुप सिद्ध हुआ है। सबके सामूहिक पुरुषार्थ से जो अच्छी चीजे उपलब्ध हो उन्हें सबके साथ बांट कर खाने का तरीका समाजवादी जीवन मार्ग है। लेकिन इस प्रक्रिया को अनुशाषित करने के लिए राज्य – सत्ता के द्वारा नियमन जरूरी है। फिर राज्य – सत्ता के नियमन करने वालों को अनुशासित कौन करेगा ? इसी से राज्य – सत्ता के अधिनायकवाद का जन्म होता है। एकदलीय व्यवस्था में यह शोषण के चरम विन्दु तक पहुँच सकता है। भारत ने इसीलिए सोवियत रूस से प्रेरित समाजवादी समाज बनाने का लक्ष्य तो रखा किन्तु उसके लिए बहुदलीय प्रजातंत्र की स्थापना की व्यवस्था की गयी।
बहुदलीय प्रजातंत्र के कारण एकदल के अधिनायकवादी होने और कार्यपालिका तथा न्यापालिका पर नियंत्रण का खतरा कुछ हद तक टल गया। परन्तु बहुदलीय व्यवस्था में दलीय राजनीति के परंपरागत टकराव और सत्तापर काबिज होने की होड़ ने स्थितियों को और भी जटिल बना दिया। दलीय राजनीति के स्वभावमें ही यह निहित होता है कि सत्ता को येन – केन – प्रकारेण हस्तगत किया जाय। इसके लिए पिछले कई चुनावों से नए – नए हथकंडे अपनाये जाते रहे हैं। उनकी फेहरिश्त बहुत लम्बी है किन्तु कुछेक को उद्धृत करना जरूरी होगा। राष्ट्रीय दलों द्वारा क्षेत्रीय स्तरपर क्षेत्रीय दलों के साथ सिद्धांतविहीन गठबंधन , जनता को धर्मं, जाति,क्षेत्रीयता, प्रांतीयता, भाषा आदि के नाम पर विभिन्न वर्गों में बांटकर और प्रचार – माध्यमों द्वारा अनावश्यक वादों के साथ लगातार प्रचार के द्वारा अधिकमत प्राप्त करने की ललक ने प्रजातंत्र को दलीयतंत्र में तब्दील कर दिया है। इस बार सारे राष्ट्रीय नेता भी अपनी उपलब्धियों को गिनाने से अधिक दूसरों की कमज़ोरियों को गिनाने में ज्यादा वक्त बर्बाद कर रहे हैं। कुछ नेता तो मतदान केंद्र नियंत्रण और बोगस वोटिंग तक की सलाह खुलेआम दे रहे हैं। हालाँकि निर्वाचन आयुक्त को अधिकार है कि ऐसी प्रक्रिया की वकालत करने वाले नेताओं पर सीधे आपराधिक मामलों के अंतर्गत कार्रवाई की जा सके किन्तु फिर भी नेताओं की जुबान कितनी गंदी और नियंत्रणहीन हो गयी है , इससे इसका पता चलता है।
दलीय राजनीति में चुनाव में जीतने वाले उम्मीदवारों की खोज में सारेदल रहते हैं। अमुक क्षेत्र में किस जाति, संप्रदाय, भाषा, क्षेत्र वालों का मत है तथा किस उम्मीदवार को खड़ा करने से ऐसे मत प्राप्त किये जा सकते है , इसपर सभी दलों की नज़र रहती है। इन मतों को हासिल करने के लिए ऐसे उम्मीदवार जिनपर आपराधिक मुक़दमा चल रहा है उसे भी उम्मीद वार बनाने में किसी भी दल को कोई परहेज नहीं होता है। ‘सत्यमेवजयते’ के ३१ मार्च २०१४ के एपिसोड के अनुसार राष्ट्रीय संसद में ३०% और राज्य सभाओं के ३१ % चुने हुए प्रतिनिधि ऐसे हैं जिनकी या तो सजा हो चुकी है या जिनपर आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं। यदि धीरे – धीरे इनकी संख्या बढती गयी तो कोई आश्चर्य नहीं होगा जब यह कानून ही बन जाये जिसमें नेताओं द्वारा संगीन अपराध करने पर भी कोई नहीं सजा या बिलकुल कम सजा के प्रावधानका बिल पास कर दिया जाय। हम लोगों ने पिछली लोकसभा की कार्यवाही में देखा है कि सारे प्रतिनिधि या पक्ष और विपक्ष दोनों वैसे प्रस्तावों को तुरत पास कर देते हैं जिनमें प्रतिनिधियों के वेतन, पेंसन, या भत्ता आदि बढ़ाने का प्रावधान होता है। इसी दलीय राजनीति से क्षेत्रीय स्तर पर ऐसे दलों या नेताओं का उदय हुआ है जिन्होंने क्षेत्रीय भावनाएं भड़का कर मत प्राप्त किया और राज्य या केंद्र में कुछ मतों के जोड़ – तोड़ करने में खरीद – फरोख्त के द्वारा इस या उस दल को सरकार बनाने में समर्थन करने के लिए काफी धनराशि ली। इस धनराशि की व्यवस्था की फंडिंग में कॉर्पोरेट जगत के दिग्गजों का भी परोक्ष हाथ रहा है ताकि बाद में अपने अनुकूल बिल पास करवाकर अधिक मुनाफा कमाने का मार्ग प्रशस्त किया जा सके।
इसतरह आज का प्रजातंत्र सिर्फ दलीय राजनीती का अखाडा बन कर रह गया है। संसद और राज्य विधान सभा में जिसतरह का आचरण और दृश्य देखने में आ रहे हैं चुनकर आये नुमाइंदों के चरित्र और गुणवत्ता के कारण इससे बेहतर प्रदर्शन की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती। सिर्फ मतदाताओं द्वारा डाले गए मतों की संख्या के आधार पर सिमटते जनतंत्र में कुल मतदाताओं की संख्या या कुल डाले गए मतों की संख्या का कम प्रतिशत लगभग ३० या ३५ % लाने वाला उम्मीदवार भी विजयी घोषित हो जाता है। इससे तो सबों के मताधिकार का अधिकार भी अवास्तविक और अप्रासंगिक लगने लगता है। दलीय पद्धति लोगो को कायर और दब्बू भी बना रही है। समाज रूपी तालाब में संकीर्ण भावनाओं की जो गन्दगी और बदबू तल में बैठी रहती है चुनाव के समय उम्मीदवार लोग उसमें कंकड़ मार – मार कर ऊपर ले आते हैं ताकि समाज मैं गन्दगी फैले और उससे मतों के विभाजन का फायदा मिले। जो काम अंग्रेजों ने शासन स्थापित करने और चलाने के लिए तथा आज़ादी के समय भारत को विभाजित कर किया वही काम नेता लोग आज़ादी के बाद चुनाव के समय करते हैं। इस तरह से तो दलीय पद्धति द्वारा जनता और भी डरपोक और नपुंसक बनती जा रही है। इस पद्धति ने जनता की शक्ति और अभिक्रम (initiative) को बढ़ाकर स्वराज्य स्थापित करने और अपनी व्यवस्था अपने आप सम्भालने के लिए सशक्त नहीं किया है। वह ऐसा करना चाहती भी नहीं है। दलों को तो सिर्फ इससे मतलब है कि सत्ता उनके हाथ में आये और वे जनता पर राज्य कर सके। इस तरह इस दलीय पद्धति ने लोगों को भेड़ों की स्थति में ला दिया है जिसका अधिकार केवल नियत समय पर गड़ेरियों को चुन लेना है जो उनके कल्याण की चिंता करेंगे। यानि आज का प्रजातंत्र वो व्यवस्था है जिसमें ‘बकरे या भेड़ें अपने हिस्से के कसाई को खुद चुनती है। ‘इसीलिये तो उम्मीदवार चुनाव जीत जाने के बाद जनता से कह सकता है ‘ मैं व्यभिचारी , भ्रष्टाचारी , दुराचारी और न जानेक्या – क्या बीमारी हूँ , ऐसा मैंने सुना है, किन्तु क्या करूँ मुझे तो आप ही ने चुना है।’ इस दलीय तंत्र में एक ही मूल मंत्र है कि आप अपने मत का उपयोग सावधानी से करें , विवेक से करें। सच पूछिए तो यह ऊपरवाले का चमत्कार ही है कि इस सबके वावजूद भी भारत का अखंड और समरस वज़ूद काफी हद तक बना हुआ है।
क्या यह स्थिति बदल सकती है? अभी इस चुनाव पद्धति में यदि किसी निर्वाचन क्षेत्र से कई उम्मेदवार खड़े हो और मतों का विभाजन होता है तो हम देखेंगे कि सबसे अधिक मत पाकर जीतनेवाला उम्मीदवार भी उस क्षेत्र के कुलमतों या कुल डाले गए मतों के २५ या ३० % पाकर विजयी हो जाता है। यानि जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले उम्मीदवार भी अल्पमतों से जीतकर आते है और परिणामतः ५०% से काफी कम मत वाली जनता का प्रतिनिधित्व कर रहे होते हैं। भारत में प्रचलित चुनाव पद्धति में सुधार, जिसमें मतदान करना सबों के लिए अनिवार्य कर दिया जाय, के द्वारा इस समस्या का हल प्राप्त किया जा सकता है। अभी ईवीऍम में नोटा बटन का प्रावधान किया जाना उचित दिशा में उठाया गया कदम है। अगर किसी चुनाव क्षेत्र में खड़े उम्मीदवारों में मतदाता को कोई भी उम्मीदवार पसंद नहीं है तो नोटा (Non of the above)बटन को दबाया जा सकता है। इस समय मोबाइल करीब- करीब सभी जगह उपलब्ध है। मोबाइल के द्वारा पैसों का भी आदान – प्रदान होने लगा है। मोबाइल के द्वारा ऑनलाइन मतदान की तकनीक का विकास कर चुनाव प्रक्रिया को कम खर्चीला और आसान बनाया जा सकता है। इससे चुनाव प्रक्रिया में सुरक्षा – दल , मतदान करने वाले कर्मचारियों तथा मतदान सामग्री के पहुचाने आदि में होने वाले खर्चे को काफी हद तक कम किया जा सकता है। दागी उम्मीदवार को किसी भी स्थिति में चुनाव में खड़ा होने से बंचित करने पर उम्मीदवारों की गुणवत्ता को बढ़ाया जा सकता है। लेकिन सबसे अधिक प्रभावोत्पादक वह कदम होगा जिसमें जीते गए उम्मीदवारों को चुनाव के दरम्यान किये गए वादों को पूरा नहीं करने पर उनके कार्य काल पूरा होने से पहले मतदाताओं द्वारा वापस बुलाने का प्रावधान किया जा सके। लेकिन इसके लिए संविधान में संसोधन की जरूरत होगी। यह संसोधन कोई भी दल नहीं लाना चाहेगा। अगर कोई व्यक्ति या दल इसे ले भी आता है तो दूसरे दलों या सांसदों के विरोध के कारण कभी पास नहीं होगा ।
इस तरह हम देखते हैं कि इस चुनाव पद्धति में सुधार कर दूरगामी परिणाम की अपेक्षा नहीं की जा सकती। कुछ और चिंतन और मंथन किया जाय। क्या दुनिया में अब तक हुई क्रांतियों से इस समस्या का हल निकल सकता है? दुनिया में बड़ी – बड़ी क्रांतियां, इंकलाब हुए हैं। फ्रांसमें, रूसमें, चीन में क्रांतियां हुई। अमेरिका में स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए संग्राम भी एक क्रांति ही थी। लेकिन उसके बाद क्या हुआ? उस क्रांति का सबसे बड़ा नेता अपने देश के सर्वोच्च सिंहासन पर जा बैठा , उसने सरकार की बागडोर अपने हाथ में ले ली। क्रांति की उद्देश्यपूर्ति, परिवर्तन के लक्ष्य और नए समाज के निर्माण करने के नाम पर सबों ने सत्ताग्रहण की। केवल भारत में गांधीजी ही ऐसे निकले जिन्होंने सत्ता ग्रहण नहीं की। गांधीजी जिन्होंने स्वराज्य प्राप्ति के आंदोलनका नेतृत्व किया , जो सबसे सम्मानित , सर्वसम्मत नेता हो सकते थे , सत्ता से दूर रहे। वे सत्ता में जाकर देश की बागडोर सम्हाल सकते थे। लेकिन उन्हें पूर्ण विश्वास था कि उनके उद्देश्यों की पूर्ति सत्ता द्वारा नहीं हो सकती थी। जिस कांग्रेस ने आंदोलन चलाकर आज़ादी प्राप्त की थी , जो पूरे देश की आवाज बनी थी , उसी कांग्रेस के लिए गांधीजी ने कहा था कि उसका विसर्जन करो और उसकी जगह उन्हीं लोगों को लेकर ‘लोकसेवकसंघ ‘ बनाओ। गांधीजी के पी.ऐ.प्यारेलालजी द्वारा लिखी गयी पुस्तक ‘लास्ट विल एंड टेस्टामेंट ‘ में इसकी चर्चा की गयी है।
स्वराज्य के बाद हमारे देश की गाड़ी विपरीत दिशा में कैसे मुड़ गयी , इसके कारण जानने होंगे। भारतीय संविधान बनाने काम मुख्य रूप से देश के सर्वोच्च विधिवेत्ताओं के सिर पर दाल दिया गया था। नया संविधान बनाने का काम आंदोलन में प्रत्यक्ष रूप से भाग लेने वालों के हाथ में होना चाहिए था। शायद सोचा गया कि संविधान बनाना कानून विदों का काम है ताकि प्रावधानों को उचित भाषा और परिभाषा में निबद्ध किया जा सके। पर गांधीजी चाहते थे कि भारतीय राज्य की बुनियाद में ग्राम – स्वराज्य हो। जब संविधान का पूरा मसविदा तैयार हो गया , तब श्री संतानम या श्री टी. प्रकाशम्ने ध्यान आकृष्ट किया कि गांधीजी ने जिस ग्राम – स्वराज्य की कल्पना को स्वराज्य के ढांचे की बुनियाद माना था, संविधान में तो उसका जिक्र ही नहीं है। जब इसका जिक्र संविधान सभा के अध्यक्ष डाक्टर राजेंद्र प्रसाद से किया गया तो उन्हें धक्का – सा लगा। इस बात को संविधान सभा में विचार के लिए रखा गया तो डाक्टर राव ने कहा कि अब यदि ग्राम – स्वराज्य को बुनियाद बनाकर सुधारने बैठेंगे तो पूरी चुनाव पद्धति सहित सारा स्वरुप बदलना पड़ेगा। नेहरूजी और सरदार पटेल के कानो तक यह बात पहुचाई गयी तो कुछ चर्चाओं के बाद संविधान में एक धारा और जोड़ दी गयी जिसमें राज्यों को यह निर्देश दिया गया कि ‘ संविधान के मूल मार्गदर्शक सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए ग्राम – पंचायत को स्वशासन की इकाई माना जाय।’ १९५९ में पंचायती राज का कार्यक्रम लागू किया गया।किन्तु उसके पीछे ग्राम – स्वराज्य की मूल अवधारणा नहीं बल्कि सामुदायिक विकास योजना मद की राशि के आवंटन के लिए गांव के स्तर पर एक सरकारी ढांचा खड़ा करना था। इसीलिये पंचायत आज स्वशासन की इकाई नहीं बल्कि राज्य सरकार की एक इकाई बनकर रह गयी है।
गांधीजी राज्य – शक्ति के विकल्प के रूप में लोक – शक्ति को खड़ा करना चाहते थे। लोक – शक्ति के उदय के लिए ग्राम – सभाओं और मोहल्ला – सभाओं के गठन और उन्हें ही ऍम एल ये और ऍम पी चुनने का सीधा अधिकार दिया जाना पूर्ण स्वराज्य की ओर सशक्त कदम हो सकता था । आज की दलगत राजनीती और दलतंत्र से मुक्ति का मंत्र भी यह साबित होता। आज के समय में संविधान में इसका प्रावधान करना और उसे विभिन्न दलों के द्वारा चुने हुए नुमाइंदों द्वारा संसद में पास किया जाना असम्भव – सा लगता है। आज की प्रचलित दलीय और सत्ता की राजनीती के अलावा भी जनता के प्रत्यक्ष व्यवहारिक जीवन की असली राजनीती का कितना विशाल क्षेत्र पड़ा है और इसमें कितना अधिक काम करना बाकी है इसे सत्ता की राजनीती में रमे हुए लोगों को समझ नहीं आ सकता । इसे सत्ता की राजनीती में लिप्त लोगों की अपेक्षा टतष्ट लोग ही कर सकते हैं। इसीलि ये ऐसे लोकनीतिमूलक सवालों को जब तक दलीय तथा सत्तामूलक राजनीतिक लाभ की दृष्टि से सोचने के बदले देश – हित की दृष्टि से सोचा जाता , तब तक इनका हल नहीं ढूढ़ा जा सकता। राजनीती का अपना क्षेत्र है इससे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन वही एकमात्र ऐसा क्षेत्र जहाँ सारी समस्याओं का समाधान होगा , ऐसा सोचना भी बिलकुल गलतहै। वास्तव में इस प्रचलित राजनीती के बाहर ही असली राजनीती का विशाल क्षेत्र पड़ा है जिसमें काम करके नयी लोकनीति को विकसित किया जा सकता है। इसीलिये दलगत राजनीती का एकमात्र विकल्प ग्राम – स्वराज्य आधारित लोकनीति ही हो सकती है, आज की प्रचलित राजनीती (दलनीति ) नहीं।

— ब्रजेन्द्र नाथ मिश्र,
3A, सुन्दर गार्डन, संजय पथ, डिमना रोग, मानगो, जमशेदपुर।
मेतल्लुर्गी*(धातुकी) में इंजीनियरिंग , पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा इन मार्केटिंग मैनेजमेंट। टाटा स्टील में 39 साल तक कार्यरत। पत्र पत्रिकाओं में टेक्निकल और साहित्यिक रचनाओं का प्रकाशन। सम्प्रति जनवरी से ‘रूबरू दुनिया ‘ भोपाल से प्रकाशित पत्रिका से जुड़े है। जनवरी 2014 से सेवानिवृति के बाद साहित्यिक लेखन कार्य में निरंतर संलग्न।
E-mail: brajendra.nath.mishra@gmail.com
Blog: http://marmagyanet.blogspot.com

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